बारहसैनी समाज का उद्गम महाभारत के समय या भगवान
श्री कृष्ण की सदी से है। हमारे इष्ट देव श्री
अक्रूर जी महाराज हैं जो वृष्णि वंश में उत्पन्न
हुये। यह वृष्णि वंश यदुकुल की एक शाखा थी
जिसमें भगवान श्री कृष्ण जी का भी अवतार
हुआ।
श्री अक्रूर जी महाराज का जन्म श्री कृष्ण
जी के पितृकुल में हुआ था अत: वे श्री कृष्ण जी के
रिश्ते में चाचा लगते थे। इन सभी तथ्यों में कोई
विरोधाभास नहीं मिलता है और पौराणिक सभी ग्रन्थ इन
तथ्यों की पुष्टि करते
है। |
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वृष्णि वंश के विषय में सभी पौराणिक
ग्रन्थों में इस प्रकार व्याख्या दी गयी
है– |
वृषस्य पुत्रो मथुरासीम।तस्यापि वृष्णि
प्रमुखं पुत्रं शातगसति। यतो वृष्णि सलामेत
दगोत्र भवाय। (4–11–26–27–28) & विष्णु
पुराण। |
अर्थात् वृश का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ
पुत्र हुये जिनमें पहला वृष्णि था। इसी के नाम से
ही यह कुल वृष्णिकुल हुआ।
वृष्णिकुल का सीधा सम्बन्ध क्षत्रीय समाज
से है लेकिन इतिहास यह दर्शाता है कि जिन
क्षत्रियों या ब्राह्मणो ने अपने कर्मों को
आधार ‘‘व्यापार’’ बनाया वे ‘‘
वैश्यो’’
वंश के जिस क्षत्रिय समुदाय ने व्यापार को
अपनाया उनका कुल ‘‘ बारहसैनी’’ और बाद में
‘‘वार्ष्णेय’’ शब्द से सम्बोन्धित किया
गया।
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जिस प्रकार भगवान
श्री कृष्ण ने अपना समस्त काल मथुरा–वृन्दावन और
आसपास के स्थानों पर क्रीड़ाये एवं लीलायें दिखाकर
व्यतीत किया, उसी प्रकार हमारे समाज की जन्मदात्री
मथुरा–वृन्दावन की पावन भूमि है। |
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यह बात प्रसिद्ध है कि वृष्णि और उनकी
सन्तान मथुरा और उसके आसपास की जगहों पर ही निवास
करती थी। वृष्णि के पिता का नाम मधु था और इसी
कारण शायद नगर का नाम भी मथुरा पड़ा। आसपास की जगह
मधुपुरी एवं मधुवन कहलायी।
‘‘मधुवन में राधिका नाची
रे...............................................।’’
यह जगत विख्यात
है। |
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मि0 कुर्क साहिब
(अंग्रेज) की किताब ‘‘Enthographical
Handbook’’ में 14/16
वें
पृष्ठ पर बारहसैनी शब्द का अर्थ इस प्रकार
लिखा है:–
‘‘ प्राचीन होने के विचार से भी बारहसैनी
विरादरी सर्वोपरि है उसकी उत्पत्ति की खोज महाभारत
के पहले से मिलती है और अन्य विरादरियों की वावत
यह भलीभाँति निश्चय हो चुका है कि वह महाभारत से
कही पीछे उत्पन्न हुई।’’
उन्होंने जो वृतान्त बारहसैनियों का दिया
है वह इस प्रकार है
:–
‘‘बाहरसैनी
मथुरा, बुलन्दशहर, अलीगढ़, बदायूँ, मुरादाबाद एवं
एटा जिलों में रहते है। मथुरा के चारो ओर 84 कोस
का क्षेत्र जो ‘‘बृज’’ की सीमा कही जाती है,
बारहसैनी समाज की बसावट का क्षेत्र
है।’’ |
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बारहसैनी / वार्ष्णेय शब्दो की उत्पत्ति के
विषय में कोई ठोस लेख प्राप्त नही है लेकिन
पौराणिक गृन्थों एवं इतिहास के पन्नो का अवलोकन
करने से कुछ अनुमान लगाये जा सकते
है। |
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श्री अक्रूर जी महाराज के बारह भाई थे और
एक बहिन थी, शायद इसी कारण उनके वँशजो ने "बारह"
शब्द को
अपनाया। |
श्रेणियों की विश्वव्यापी
परम्परा |
"बारहसैनी" पत्रिका के जनवरी 1969 के अंक
में आचार्य मुरारीलाल जी द्वारा लिखित एक लेख पढने
को मिलता है। इस लेख में उन्होनें प्राचीन समय
में श्रेणियों के महत्व को दिखाया है। लेखक अनुसार
ज्यों ज्यों कृषि पर आधारित, खानपान से सम्बन्धित
पदार्थो के अतिरिक्त अन्य घरेलु सामानों का उदय
हुआ, एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ जो मन्डियों में
वस्तुओ को बेचने लगा। यह वर्ग कृषि जीवी नहीं था
अतः इनकी बस्तियां गावों से पृथक बसने लगी। यही
कस्बो / नगरो का आरम्भ था जिनकी जनसँख्या धिरे
धिरे गावों की जनसँख्या से बढी होने लगी ऐसे कस्बो
/ नगरों में व्यापार करने वाले वार्णक सँगठित होने
लगे। यह स्वाभाविक था कि बे वार्णक जो एक साथ रहते
थे, पारस्परिक लाभ और सुरक्षा के लिये एक सँगठन
सुत्र में बँध जाते थे। ऐसे ही सँगठन को वार्णक
श्रेणी कहा जाता था। मोनाहन(Monahan) ने "Early
History of Bengal" में लिखा है कि श्रेणियाँ
विशेष प्रकार की सेनायें थी जो अनुबन्ध के अनुसार
सेना की सेवा करती
थी। "बारहसैनी" या "द्वादश
श्रेणि" शब्द इस बात का सँकेत करता है कि वेदिक
काल मे ही, जब श्रेणियों की पृथा विद्धमान थी और
भारतवर्ष में श्रेणियाँ "जाति" का रूप लेती जा रही
थी, मथुरा, अलीगढ़(हाथरस) और चन्दोजी के आसपास जो
व्यापारी वर्ग सक्रिय रहा और जिस वर्ग का कृषि एवं
पशुपालनसे सम्बन्धित पदार्थो के व्यापार पर
अधिप्त्य रहा और जिनके इष्ट देवता श्री अक्रूर जी
महाराज थे, उन्होनें अपने आपको "बारहसैनी"
कहलवाया। |
वार्ष्णेय
शब्द का महत्व |
वार्ष्णेय शब्द का प्रयोग भगवान श्री कृष्ण
के लिये कई लेखे में कीया गया है। उनका वँश भि
वृष्णि था, गीता में उल्लेख है - अधर्माभिभवात्
कृष्ण प्रधुथन्ति कुलस्टियः। स्त्रीषु दुष्टासु
वार्ष्णेय जायते वर्ण संकर॥ गीता, अध्याय 1,
श्लोक 41 अथकेनप्रयुक्तोंडयं पापं
चरति पुरुषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिन
नियाज्वेत॥ गीता, अध्याय 3, श्लोक
36 वृष्णि वँश में जन्म लेने वाले,
वैश्य समाज को अपनाने के उपरान्त कलान्तर में समाज
के अग्रणी व्यक्तियों का अपने क्षेत्र की
अर्थव्यवस्था पर इतना अधिकार रहा होगा की उनके
समाज को भी "वार्ष्णेय" शब्द से सम्बोधित कीया
जाने लगा। यह बड़े गर्व की बात रही कि समाज को
देशवासियों में प्रभु का नाम देना स्वीकार किया।
इसीकारण सोलहवीं या बाद की शताब्दी में समाज के
कुछ व्यक्तियों ने "वृष्णि", "वार्शनेई" या
"वार्ष्णेय" लिखना प्रारम्भ कर
दिया। |
एक बार प्रेम से बोलो- "भगवान श्री कृष्ण
की जय" ! |
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